रविवार, 4 नवंबर 2012

'चक्रव्यूह' : छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद की
जड़ें गहरी होने के पीछे आखिर कौन जिम्मेदार?

0 अनिरुद्ध दुबे

निर्देशक प्रकाश झा ज्वलंत मुद्दों पर फिल्म बनाने के लिए जाने जाते हैं। इस बार उन्होंने नक्सली समस्या को उठाया है। फिल्म का नाम है 'चक्रव्यूह'। प्रकाश झा की फिल्मों के नाम में भी बड़ी सार्थकता होती है। उदाहरणार्थ- 'दामुल', 'हिप-हिप हुर्रे', 'मृत्युदंड', 'गंगाजल', 'अपहरण', 'राजनीति' व 'आरक्षण'।
नक्...
सली समस्या पर झा ने अपनी फिल्म का नाम 'चक्रव्यूह' रखा है तो यह उनकी दूरदर्शिता है। 'चक्रव्यूह' का उल्लेख 'महाभारत' में है। कौरव-पांडव के बीच युद्ध के दौरान गुरू द्रोणाचार्य ने 'चक्रव्यूह' की रचना की थी। युद्ध भूमि पर 'चक्रव्यूह' को तोडऩे अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु को अपने प्राणों की आहूति देनी पड़ी थी। नक्सलवाद भी क्या किसी 'चक्रव्यूह' से कम है! नक्सली समस्या का सूत्रपात पश्चिम बंगाल में हुआ था। नक्सलवाद पश्चिम बंगाल के बाद आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, झारखंड, मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में पैर पसार लिए। यह गौर करने लायक बात है कि 'चक्रव्यूह' पूरी तरह छत्तीसगढ़ राज्य पर फोकस है। फिल्म में कई दृश्यों में छत्तीसगढ़ी में भी संवाद सुनने को मिल जाते हैं। प्रकाश झा की खासियत है कि काफी रिसर्च के बाद वे किसी विषय को फिल्म के माध्यम से उठाते हैं। 'चक्रव्यूह' के लिए यदि उन्होंने छत्तीसगढ़ को आधार बनाया तो समझा सकता है कि इस राज्य में नक्सलवाद का स्वरूप कितना विकराल होगा।
फिल्म की कथा संक्षेप में कुछ यूं है- पुलिस अफसर आदिल खान (अर्जुन रामपाल) की पोस्टिंग नक्सल प्रभावित क्षेत्र नंदीघाट (काल्पनिक जगह) में होती है। नक्सलियों के चक्र को भेदना आसान नहीं। यहां पर आदिल के लिए उसका दोस्त कबीर (अभय देओल) मददगार होता है। योजना के तहत कबीर नक्सलियों के दल में शामिल हो जाता है। कबीर की गुप्त सूचनाओं की मदद से आदिल नक्सलियों के खिलाफ आपरेशन चलाता है। इस बीच कुछ ऐसा घटित होता है कि कबीर का मन परिवर्तित हो जाता है और वह पूरी तरह नक्सलियों के साथ हो जाता है। नक्सलियों के बुजुर्ग नेता (ओमपुरी) कबीर को नया नाम देते हैं आजाद। पुलिस के खिलाफ लड़ते आजाद मारा जाता है। आजाद की मौत के साथ ही फिल्म का अंत है और अंत में यह प्रश्न भी खड़ा होता है कि छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद की जड़ें गहरी होने के पीछे आखिर कौन जिम्मेदार है?
पुलिस अफसर की भूमिका में अर्जुन रामपाल ने बेहतरीन छाप छोड़ी है। यूं कहें अपने फिल्मी कैरियर में अर्जुन रामपाल सबसे जबर्दस्त रोल में 'चक्रव्यूह' में नजर आए हैं। अभय देओल भी कहीं से कम साबित नहीं हुए हैं। महिला नक्सली लीडर जूही की भूमिका में अंजली पाटिल बाजी मार ले गई हैं। मनोज बाजपेयी व ओमपुरी जितनी भी देर नजर आए खुद को बेहतर साबित किए।
गौरव की बात है कि छत्तीसगढ़ के दो कलाकार संजय महानंद एवं पुष्पेंद्र सिंह 'चक्रव्यूह' के महत्वपूर्ण दृश्यों में नजर आए हैं। गहराई से देखें तो 'चक्रव्यूह' सरकार पर निशाना है। अगले साल छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होना है। कुछ अंश तक ही सही 'चक्रव्यूह' छत्तीसगढ़ के मतदाताओं की सोच को प्रभावित तो कर ही सकती है। 'चक्रव्यूह' के बहुत से संवाद सीधे मन पर वार करते हैं। बतौर निर्देशक प्रकाश झा एक बार फिर बाजी मार ले गए हैं।

----

शनिवार, 8 सितंबर 2012


डरिये...

शब्दों के कलाबाजों से

हरदम यही तो साबित करने में लगे रहे

ये कलाबाज

इनके शब्दों के भरोसे ही चल रही दुनिया

क्या इतिहास गवाह नहीं

इनकी कारगुजारियों का

शब्दों का बखेड़ा खड़ा करने वालों का

क्यों नहीं किनारे लगा दिए जाते

ये बौद्धिक तानाशाह

क्या बौद्धिक आतंक

किसी खून खराबे से कम है...


                      0 अनिरुद्ध दुबे

                      8 सितम्बर 2012   शनिवार
                       
                                                      

 

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

`आनंद' तुम बहुत याद आओगे...

18 जुलाई की दोपहर मैं ट्रेन में था। मोबाइल पर एक एसएमएस देख चौंक पड़ा। ख़बर थी अभिनेता राजेश खन्ना नहीं रहे। यह खबर मन को धक्का देने वाली थी। मैं राजेश खन्ना की फ़िल्में देखकर बड़ा हुआ। कुछ हल्की सी यादें अब भी मेरे जेहन में हैं। जब गोद में खेलने के दिन थे, मां के साथ राजेश खन्ना की `दुश्मन' फ़िल्म देखने गया था। चैनलों का युग तो काफी बाद में आया, पहले केवल दूरदर्शन हुआ करता था। दूरदर्शन के जमाने में हर रविवार की शाम फ़िल्म का प्रसारण हुआ करता था। राजेश खन्ना की `अमर प्रेम', `जोरु का गुलाम', `मेरे जीवन साथी', `आपकी कसम' एवं `इत्तफा़क' फ़िल्में मैंने दूरदर्शन पर ही देखी। `अमर प्रेम' तो दो-तीन बार  दूरदर्शन पर दिखाई गई। `अमर प्रेम', `खामोशी' व `आनंद' को मैं राजेश खन्ना की यादगार फ़िल्मों की श्रेणी में रखता हूं। उनकी `अवतार' भी कमाल की थी। उनकी एक और बेहतरीन फ़िल्म थी `धनवान', जिसका जिक्र कम ही होता  है। `धनवान' में राजेश खन्ना ने एक ऐसे बिगड़ैल धनवान आदमी की भूमिका की थी, जिसे यह भ्रम रहता है कि पैसे से सब कुछ खरीदा जा सकता है। एक हादसे में धनवान के बिगड़ैल नायक की दोनों आखों की रोशनी चली जाती है। तब उसे समझ आता है कि पैसे से सब कुछ नहीं खरीदा जा सकता। फ़िल्म के दूसरे नायक राकेश रोशन की आंखें उसके काम आती है। नई आंखें मिलने के बाद बिगड़ैल धनवान सही रास्ते पर चल पड़ता है। धनवान का एक गीत काफी मधुर है- "ये आंखें देखकर हम सारी दुनिया भूल जाते हैं...।" यह गाना राकेश रोशन व रीना राय पर फ़िल्माया गया। इस गाने के लिए आवाज़ें दी लता मंगेशकर व सुरेश वाडकर ने। `धनवान' में संगीत हृदयनाथ मंगेशकर का है। हृदयनाथ लता जी के भाई हैं।
राजेश खन्ना की `आनंद' कभी भूलाई न जा सकगी। `आनंद' का हीरो आनंद (राजेश खन्ना) जानता है कि वह कैंसर का मरीज है और उसकी ज़िन्दगी के कुछ ही दिन बाकी हैं। डॉक्टर भास्कर (अमिताभ बच्चन) से आनंद का यह कहना कि "बाबू मोशाय ज़िन्दगी लम्बी नहीं बड़ी होनी चाहिए"  में गहरा जीवन दर्शन छिपा है। वहीं आनंद द्वारा कहा गया एक और संवाद बाबू मोशाय "ये दुनिया एक रंगमंच है, जिसके हम सब कठपुतली हैं और डोर ऊपर वाले के हाथों में है..." में भी जीवन का गहरा अर्थ छिपा है। `आनंद' के अंत में बाबू मोशाय का संवाद है- "आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं"। ऐसा महसूस होता है यह संवाद मानो राजेश खन्ना के लिए ही बना हो। राजेश खन्ना अपने प्रशंसकों यादों में सदैव जिंदा रहेंगे। आनंद तुम बहुत याद आओगे...       

गुरुवार, 1 मार्च 2012

ये नहीं बदलते

लोगों को कहते सुना है

इस जमाने में

दोस्ती और प्रेम

स्थायी नहीं होते

मेरा मानना है

होते हैं...

पेड़, नदी, पहाड़, झरने

से दोस्ती करके तो देखो

ये उसी जगह खड़े मिलेंगे

जहां पहले थे

औरों की तरह ये नहीं बदलते

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

टेस्ट पोस्ट

अनिरुद्ध दुबे के ब्लॉग में आपका स्वागत है...

टेस्ट पोस्ट

ललित जी से मिली जानकारी के अनुसार ७ फरवरी से छत्तीसगढ़ के राजिम में कुंभ का शुभारंभ हुआ. साधू संतों के डेरे लगे हुए हैं, कुंभ शिवरात्रि तक चलेगा. इस अवसर पर विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम और प्रवचनों का आयोजन भी किया जा रहा है, इस कुंभ में हिस्सा लेकर पुण्य लाभ भी लिया जा सकता है, जिसका न्योता हमें छत्तीसगढ़ संस्कृति मंत्रालय की ओर से ललितजी के Face Book Status  से पहले ही मिल चुका है, लेकिन हम वहां न पहुंचकर भी इस कुंभ मेले का आनंद ललित जी के उनकी Face Book  wall पर लगाये गए जीवंत चित्रों के माध्यम से ले सकते हैं,  जी हाँ इस कुंभ में सुर जगत की कुछ महान हस्तियों ने भी हिस्सा लिया, जिनमे से एक भजन सम्राट अनूप जलोटा जी हैं, जिनसे ललित जी की भेंट और विचार विमर्श भी हुआ